पागल की गीता (Paagal ki geeta)
पागल की गीता (Paagal ki geeta)
जंग रही है मानव में लेकिन वो इंसान रहे,
तोल रहे हैं देवों को, कितना ये अज्ञान रहे।
बैठ गए फिर एक जगह, उनको वही झगड़ना था,
एक ही माँ के लाल सभी, कट के आपस में मरना था।
मार्मिक, सख़्त शिलाओं की छाती पर शासन करना था,
द्वंद्व शुरू किया चीख से, ज्ञान-कोष को गढ़ना था।
पहले तो सब वैदिक थे, अभी बदलना शुरू किया था,
इतने कैसे बदले भाई, अपना धर्म तो याद रहे।
पहले उसने मांस को खाया, अलग हुआ जब माँ से वो,
जीने को नया धर्म बनाया, धर्म का मतलब याद रहे।
समय की बहती धारा में बदले उसके हाल रहे,
अहंकार की चादर ओढ़े, जन्मे कई सवाल नए।
पहले उसने ज्ञान लिया, फिर बात-बात पर अड़ जाते,
जिस बात का मतलब नहीं, उसी बात पे लड़ जाते।
मनुष्य कितना भ्रमित है, ब्राह्मण को आत्मज्ञान हुआ,
शिक्षा से इसका हल निकला, पर पंडित का सम्मान हुआ।
फिर आगे चलकर जो हुआ, उसका विस्तृत बखान हुआ,
हिंदू–मुसलमान पहले बाँटे, फिर आपस में घमासान हुआ।
नफ़रत के जो बीज बोओगे, वो पौधे तो आएँगे।
जब होगा ही नहीं कुछ पाने को, नफ़रत ही तो पाएँगे।
आरंभ कहीं तो होगा ही, जब आपस में लड़ जाएँगे।
‘चार लोग’ जो होते हैं, फिर वही तुम्हें लड़वाएँगे।
ख़ूब तमाशा देखेंगे, मन ही मन लुत्फ़ उठाएँगे,
विपत्ति ऐसी आन पड़ेगी, सब विवेक तेरे मर जाएँगे।
सुध-बुध खो के, पागल-सा दर-दर जब तू भटकेगा,
तुझसे सब डर जाएँगे, तेरे साये से भी कतराएँगे।
ईश्वर को तू कोसेगा, भाग्य को देगा गाली भी,
नफ़रत के तेरे वही बीज, तुझको आहत पहुँचाएँगे।
जो पहले तेरे अपने थे, अब पत्थर मार भगाएँगे,
नफ़रत के तेरे वही विचार, तुझको लज्जित करवाएँगे।
"ऐसा नेतृत्व किस काम का, जो नस्लों का नाश कराता है?"
"हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, आपस में क्यों लड़ जाता हैं?"
धर्म का ठेकेदार स्वयं, खुद चैन-सुकून से खाता है,
लेकिन ग़ैरों की थाली में सुख देख नहीं वो पाता है।
"पक्षपात भड़का कर वो, आपस में सुलह कराते है,
जब बेबस होता है पंडित, तब भगवान का विषय उठाते है।"
वैष्णव के विचारों में श्री हरि सर्वोच्च हैं,
और शैव महादेव का बखान गाते हैं।
ये कितने अज्ञानी हैं, आपस में लड़ जाते हैं।
क्या भगवान इसीलिए धरती पर आते हैं?
या हम मरने के बाद स्वर्ग-लोक जाते हैं?
चलो, विद्वानों से आज साक्षात्कार लगाते हैं।
वैष्णव के कथन – "विष्णु अनंत ब्रह्मांड चलाते हैं,"
तो शैव बोल पड़े – "महादेव आदि-अनंत कहलाते हैं।
शैव का कटाक्ष था – "जो समय से परे, वो महादेव,"
"जो जन्म और मृत्यु के अधीन, विष्णु उसमें आते हैं।"
वैष्णव चुप कहाँ बैठते हैं –"दशावतार" के गुण गाते हैं।
सिद्ध कैसे होता, कौन प्रथम स्थान पर आते हैं?
फिर एक पागल सामने आता है,
हँसता है, गाता है, फिर चिल्लाता है।
कहता है – "अरे! क्यों लड़ते हो आपस में,
प्रेम आरंभ की आशा है, धर्म यही बताता है,
हरि नाम से चलती दुनिया, शिव में अंत हो जाता है,
क्यों लड़ते हो आपस में, ये सरल ज्ञान की भाषा है।
माँ से चलती दुनिया भी, जन्म भी माँ से पाता है,
क्यों लड़ते हो आपस में, अहंकार विनाश ले आता है।
फिर शोक सभा में फैल गया, पंडित मुख से बोल गया।
"ज्ञानी हैं हम परिपूर्ण, तू हमको समझाता है?"
"जो आया है वो जाएगा, बस यही सत्य की भाषा है।"
फिर बीच में पागल बोला— प्रभु सत्य वचन! आप भूल गए,
गीता का वह श्लोक पढ़ो, जिसमें स्पष्ट हो जाता है,
जो समदर्शी है मानव में, वो पंडित कहलाता है।
वर्ण हुए हैं चार मगर, क्या? "जन्म से पंडित आता है?"
इतना सुन जिह्वा में ताला सा लग जाता है,
एक क्षत्रिय खामोश मगर धीरे से कह जाता है।
"विष्णु का राम जन्म हुआ,
क्यों वो क्षत्रिय कुल में आते हैं?"
"तेरे जैसे मूर्ख को बस यही बताना चाहते हैं!"
इतना कहते ही क्षत्रिय के,
व्यंग्य ने सागर को ढाँक लिया।
साँस भरी, एक गहरी सी,
फिर धीरे से साँस लिया।
फिर पागल यह लगा सोचने—"क्यों मानव अज्ञानी है?"
भारी मुश्किल आन पड़ी थी, पर शिक्षा तो करवानी है।
उसने मुख से नाम कहे—
पहले बोला रावण उसने,
फिर दूजे में हनुमान कहे।
अंत जिह्वा जब खोली उसने,
तो आखिर में श्रीराम कहे।
सभा में बैठे लोगों का धीरज इतना डोल गया,
क्षत्रिय जो सोच रहा था, वही तपाक से बोल गया।
"प्रश्न किया मैंने जो, उसको पहले स्पष्ट करो,
हार मान लो, शीश झुका के, कदमों में नतमस्त करो।
फिर पागल ने मुस्कान भरी,
नाम लिए थे तीन वही जो, उससे सभा अनजान रही।
"तुम्हें इनके वर्ण बताने हैं, और स्पष्ट रूप समझाने हैं।"
खामोशी थी चारों ओर,
सब डाल रहे थे दिमाग पर ज़ोर।
कोई कहता राम क्षत्रिय,
कोई कहता रावण पंडित,
हनुमान से अनजान रहे।
पागल बोला— "कहा नहीं था,
वर्ण हुए हैं चार मगर, तुम शिक्षा से अनजान रहे। "
"रावण ज्ञानी बेशक था, पर समदर्शी एहसास नहीं।"
"जो क्षत्रिय बोल रहे हैं उसको, वो क्षत्रिय के आस-पास नहीं।"
"चलो राम की बात पर आते हैं,"
"तुमने बोला क्षत्रिय थे,
गीता में कृष्ण बताते हैं,
जन्म नहीं बताते हैं कि वर्ण कौन सा है तेरा।"
"तेरे कर्म ही आधार बनेंगे,
मृत्युलोक पर है डेरा।"
"कान खोल के सुन लो तुम,
वो समदर्शी की मूरत थे।
जो राम को क्षत्रिय कहते हैं,
वो ब्राह्मण वर्ण की सूरत थे।"
हनुमान की बात करूँ जो,
वो वेदों में अतुल्य थे,
खुद ब्रह्मा के समतुल्य थे।
समदर्शी एहसास रहा,
वो रामचंद्र का दास रहा।
अतुलित बल, बलवान रहे,
वो बचपन से शक्तिमान रहे।
अस्त्र, शस्त्र और शास्त्र में,
ज्ञानी का सम्मान रहे।
जिसके पास सब कुछ था,
उसको केवल रामचंद्र ही ध्यान रहे।
तिलक ललाट पे शोभित था, पर शब्दों से अभिमानित था,
अपार ज्ञान का सागर था, पर पागल से अपमानित था।
हाथ जोड़ के बोला पंडित, "हे माधव! तुम शीर्ष रहे,
एक बात बता दो जो मेरी, तो झुका मेरा ये शीश रहे।"
जब धरा और खाली अंबर था, ना ईश्वर था ना पैग़म्बर था,
ना दरिया था, ना समंदर था, फिर अस्कमात कोई आया था,
जिसने सबको बसाया था — वो मायावी कौन रहा?
"सहज बसा दी धरा भी उसने, पर वाणी से मौन रहा।
" शुरुआत यदि यही से हुई है, तो आख़िर में कौन रहा?
उस मानव को कैसे मालूम — 'मैं मानव, वो त्रिभुवन' रहा।
उत्तर भी ख़ामोश हुआ, पंडित भी फिर मौन रहा।
समझ नहीं अब किसी के भीतर, ये प्रश्न ही कुछ अर्थवहीन रहा।
"ताक रहे थे मुख बेरी का, पागल कुछ अर्थहीन रहा,
पंडित ने फिर जुगत लगाकर, जनता को भड़का दिया।
चाल चली फिर उसने ऐसी, पागल को पिटवा दिया,
भोली जनता नासमझ थी — शिक्षा को ठुकरा दिया।
नगर-नगर में पंडित जी की गाथा का गुणगान हुआ,
चित्र लगे थे बेहिसाब, वो पंडित ही भगवान हुआ।
मानव अंधा है सच में, तब मंदिर का निर्माण हुआ,
अब 'प्रथम पूज्य' पंडित था, ये उसके मरणोपरांत हुआ।
