Satendra Kumar Singh

Abstract

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Satendra Kumar Singh

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नव के दोहे

नव के दोहे

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मन में सुंदरता बसे

सब जग सुंदर होय।

कटु नीम मन में भरा

चित मिसरी कित होय।।


जो मन माहीं ऋण बसे

कबहुं न होय उबार।

ऋण से ऋण को काटिए

चित्त हो तब ऋण पार।।


जिन ही कहा कि बोझ हैं

मन मन बोझ बढ़ाय।

एक एक कर साधिए

मन भर काज सधाय।।


सत्य सनातन बात यह

कड़वी न बिके बाजार।

थोथी हो पर मीठी लगे

उस पर वारी संसार।।


भला जो मानस आपना

सब जग भला लखाय।

चित्त में धन को राखिए

धन ही धन को बढ़ाय।।


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