नित्य कहता हूँ
नित्य कहता हूँ
नित्य कहता हूँ कड़वा है पर परमार्थ है,
यहाँ हर रिश्ते की बुनियाद ही स्वार्थ है।
यहाँ हर एक का दूसरे से तब तक ही चलता है,
जबतक जिसका जिससे जितना हित निकलता है।
रिश्तों की मंडी में लेन देन ही असल कृतार्थ है,
यहाँ हर रिश्ते की बुनियाद ही स्वार्थ है।
कुछ दोस्त बनकर तो कुछ हमदर्द बनकर आए,
जितने भी आए ज़िन्दगी में क़र्ज़ बनकर आए।
इस क़र्ज़ को ताउम्र क़िस्तों में चुकाना होता है,
ज़ख़्मों को कुरेदकर मरहम लगाना होता है।
इस मतलबी दुनिया में जीवन कब चरितार्थ है,
यहाँ हर रिश्ते की बुनियाद ही स्वार्थ है।
भरे यौवन में सब, फूलों के रस पीने आ जाते हैं,
मुरझाए फूलों पर भौंरे भी कहाँ मँडराते है?
सुख की बहाव में हर एक का साथ मिलता है,
अपने दुख में डूबते ही, अपनों का पता चलता है।
अपने जज़्बात कहीं साझा करना भी व्यर्थ है,
यहाँ हर रिश्ते की बुनियाद ही स्वार्थ।