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Arya Vijay Saxena

Abstract

4.5  

Arya Vijay Saxena

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निकल पड़ता हूँ अक़्सर

निकल पड़ता हूँ अक़्सर

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448


निकल पड़ता हूँ अक्सर राहों में..

अपना बनाने, मगरूर सभी तूफ़ानों को..!! 

नशा मुझे बस, सिर्फ़ मंजिलों का है..

आग लगा दो, अब गुस्ताख़ मयखानों को..!! 


याद है मुझे जिंदगी तेरी हर ठोकर.. 

भूला नहीं मैं, तेरे सभी उन अहसानों को..!! 

आज़मा ले मुझे तू, अब हर शह में.. 

दे तकल्लुफ अब, अपने सभी पैमानों को..!!


अंत नहीं ये, ये तो आगाज़ है मेरा.. 

अभी तो छूने है मुझे, ऊँचे आसमानों को..!!

खौफ़ नहीं मुझे ज़रा भी अंजाम से.. 

ना डरा तू ऐसे, बेख़ौफ़ से हम परवानों को.!!


आज गुमनाम हूँ ज़माने में तो क्या.. 

ले जाऊँगा अर्श पर, मैं सभी अरमानों को..!!

ना मिट सकूँगा, वो इक फ़साना हूँ.. 

ढूंढोंगे अल्फाजों मे,तुम मेरे अफ़सानों को..!! 


करेंगी नाज़ इक दिन तो नफरतें भी.. 

सांसो सा चाहा, सदा मैंने तो बेगानों को..!!

छोड़ जाऊँगा असर कुछ इस तरह.. 

रखोगे क़ायम लबो पर,सिर्फ़ मुस्कानों को..!!


हलचलें बहुत है जिंदगी की राहों में.. 

बामुश्किल संभाला है,सुकून के मकानों को.!!

फकत रखना भ्रम बस मोहब्बतों का.. 

कर देना मुआफ, हर कुफ्र बदगुमानों को..!! 


निकल पड़ता हूँ , अक्सर राहों में.. 

प्यार जताने, मगरूर सभी इंसानो को..!!

नशा मुझे अब सिर्फ़, मंजिलों का है.. 

आग लगा दो, गुस्ताख़ सभी मयखानों को..!! 



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