क्योंकि पुरुष हो तुम
क्योंकि पुरुष हो तुम
अक्सर देखा है मैंने,
पुरुषों को भी रोते हुए l
रोटी रोजी के जुगाड़ में,
खुली आँखों से सोते हुए l
अक्सर देखा है मैंने,
पुरुषों को भी रोते हुए l
पुरुषत्व का बोझ भारी,
पीठ पर अपनी ढोते हुए l
पत्थर सा दिल लेकर भी,
साहस हिम्मतों का खोते हुए l
अक्सर देखा है मैंने,
पुरुषों को भी रोते हुए l
टपकती छत के नीचे,
ख्वाहिशें हज़ारों संजोते हुए l
अक्सर देखा है मैंने,
पुरुषों को भी रोते हुए l
हालात के बेदर्द थपेड़ो से,
बेपनाह मायूस उन्हें होते हुए l
अक्सर देखा है मैंने,
पुरुषों को भी रोते हुए l
अक्सर देखा है मैंने,
पुरुषों को भी रोते हुए l
