निगल रही
निगल रही
ग्राम्य जीवन को निगल रही है
धूर्त बाजारुओं की चाल ढाल
विडंबना यह कि लोग समझ ही
नहीं रहे सिर पर मंडराते काल
विकास की सभी गतिविधियां ही
मिटा रहीं ग्राम्य जीवन के सबूत
वे दिनों खड़ा कर रही धन कुबेरों
की खातिर परिसंपत्तियां अनकूत
कमीशन के जाल में फंसा देश के
राजनेताओं औ अफसरों का समूह
वो नित सृजा करते ग्राम्य जीवन
की बरबादी के लिए अभेद चक्रव्यूह
हे ईश्वर देश के ग्रामीणों को दीजिए
सन्मति, चातुर्य, पैरोकारी की शक्ति
विनाशकारी ताकतों को पहचान कर
पा सकें सिर पे आए संकटों से मुक्ति।