नहर
नहर
नहर
रुकती नहीं है
चलती रहती है
अपने बहाव की दिशा में
वेग को थामे
निरंतर !
हम उसे निर्मित करते हैं,
इसीलिए शायद
साधिकार मलिन भी कर देते हैं !
भर कर उसमें,
बढ़ी हुई पूजा के अवशेष,
टोने- टोटकों, ग्रह-नक्षत्रों का उतारा,
जरूली बालों की लोई,
विसर्जित- खंडित मूर्तियाँ,
टाट-लत्तों या पॉलीथीन में लिपटा,
मानवता का नवजात शव,
बुहारी का कूड़ा,
नारंगी-मौसम्बी की खाली बोतलें,
और...अनगिनत अनदेखियाँ !
अपनी वीभत्स मंशा से हम
उसे पाट कर घायल कर देते हैं ,
अपनी स्वार्थी जरूरतों के अनुकूल
बिगाड़ कर
उसका कलकल, सौम्य, शीतल रूप !
उसकी इस अवस्था में भी
हम उसे सिर्फ़ औ सिर्फ़,
तकलीफ़ ही देते हैं !
लेकिन वो ,
प्रदत्त नैसर्गिक सौंदर्य खोकर भी,
हमें देती है माफ़ीनामा !
पहुँचती है खेतों-खेतों,
बतियाने उनमें उगे अनाजों से,
मेड़ों से सटकर उलीचती है पानी,
मुर्झाई फसल के लहलहाने को संबल,
वो देती है पानी,
हर जरूरतमंद खेत को !
नहर
रुकती नहीं है
चलती रहती है
अपने बहाव की दिशा में
वेग को थामे
निरंतर ।