नहीं रही वो
नहीं रही वो
कल तलक जिंदा थी,
बहुत खुश दिखाई देती थी,
मस्जिद की अजान से जिसे,
शाम की आरती सुनाई देती थी,
कोई मजहब या धर्म नहीं था उसका,
गौर से देखने पर हर इंसान
में दिखाई देती थी,
कभी होली के रंगों,
तो कभी ईद की सेवईयों में
दिखाई देती थी,
मासूम सी, निश्चल सी,
सबके दिलों में रहती थी वो,
भाईचारे और प्रेम की बात,
हर शख्स से करती थी वो,
दुःख हुआ जानकर नहीं रही वो,
किसी ने उसे जला डाला,
किसी ने काट डाला,
किसी ने तेजाब भी फेंका,
वो कितना सहती,
भीड़ का कैसे मुकाबला करती,
और आखिर उस हंसती,
खिलखिलाती, मासूम सी
'इंसानियत' ने दम तोड़ ही दिया।
