नदी
नदी
चाहे पत्थरों पे गिरी
या कंकड़ों से छिली मैं
धूल को फाँक कर
झाड़ियों से मिली मैं
रौंद मैदान सारे
जंगलों में घुसी
लचकती डाल सी फिर
वादियों में बसी
चली मीलों तलक तो
भँवर में भी फंसी मैं
किनारों को छोड़ कर
खुद पर ही हँसी मैं
छुड़ा कर बँध सारे
बाँध तोड़ तोड़ कर
गंदे नालों से गुजरी
हौसला जोड़ जोड़ कर
चाहे गँदी हुई
चाहे मैली रही मैं
अपनी हिम्मत के बल पर
फ़िर भी फैली रही मैं
कौन रोकेगा मुझको
मेरी फितरत है बहना
मैं इक नदी हूँ शिप्रा
याद रखना बस इतना।