नदी की आत्मकथा
नदी की आत्मकथा
नदी की आत्मकथा सुना रही हूँ
मैं शांत, निर्मल की व्यथा
कुदरत की करामात नदी को
नष्ट करने में मनुज पीछे न हटा।
अपनी आवश्यकता की पूर्ति
हेतु मुझे बरबाद कर डाला
हे दुष्ट ! तूने केवल अपने फ़ायदे के लिए
मुझे कुचल डाला।
मुझ पर इतना अत्याचार करके
क्या तू जीवन जी पाएगा
सच कहती हूँ कि तेरा घिनौना कर्म
तेरे ही आगे आएगा
मेरा स्वच्छ-मधुर जल
थके हारों की प्यास बुझाता है
इस तरह सबकी प्यास
बुझाना मुझको बहुत भाता है।
हे मनुज! तेरे छल-कपट से
विनाश मेरा हो जाता है
तेरा कुरूप चेहरा
मुझ विनम्र को बहुत डराता है।
सुन ले मानव मेरी करूण पुकार
बख्श दे मुझको अब की बार
तेरी करतूतों के आगे गई हूँ हार
मुझे बचाकर कर अपना जीवन साकार।