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नदी की आत्म कथा

नदी की आत्म कथा

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नदी कहती है

हे मानव ! निकली मैं

पर्वत के शिख से

चली दूर तक

हर सीमा से परे

पत्थरो से लड़ती

पर्वतो को चीरती


न थकती, न हारती

बस दिन रात बहती ही रहती

चलती जाती, कलकल करती

दिल मे बस एक अरमान लिए

प्यास बुझाना है, हर जीवन

जीवन्त बनाना है।


पर हे मानव !

अब मै थकने लगी हूँ

धरती की प्यास बुझाते बुझाते

मै भी अब सूखने लगी हूँ

कितना बहाऊ कहाँ ले जाऊँ

ये तेरे किरकित ओर ककरीट

देते थे जो खुशबू किनारे


होते थे जो छाओं सहारे

खड़े रहते थे बाँह पसारे

अब वो धीरे धीरे कटने लगे हैं

मेरे हौसले जिससे पस्त हो चले हैं

हे मानव ! संभल संभल चल

वक्त पड़ा है, गुज़रा नहीं है।


हरा-भरा जो मैदान नहीं है

हरियाली की वहाँ चादर बिछा ले

बाग तू धरा का फिर से सजा दे।


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