नदी के किनारे
नदी के किनारे
नदी के दो किनारे थे हम,
एक दूसरे से बिल्कुल अलग
हमारा एक होना, लगभग नामुमकिन
और हमारा एक होना, मतलब नदी का अंत
तुम बारिश से पहले के स्लेटी बादल थे
और मैं बारिश के बाद का इंद्रधनुष
तुम रॉक कॉन्सर्ट की कोई धुन थे
मैं मुशायरे का कोई शेर
तुम मुराकामी की काफ़्का ऑन द शोर थे
मैं धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता था
तुम थाई सैलेड विद टिंच ऑफ़ ब्लैक पेपर थे
मैं गोल गप्पे था, खट्टे-तीखे पानी वाले
तुम ब्लैक कॉफ़ी विद नो शुगर थे
मैं ज़्यादा अदरक वाली कड़क चाय
हमारा मिलना वैसा ही था जैसे एक साथ, एक ही वक़्त पर,
एक ही सड़क से मर्सेडीज़ और रिक्शा के टायर मिलते हैं
दोनों, अपनी-अपनी दुनिया में गुम, दोनों को एक-दूसरे से कोई सरोकार नहीं
हमारी बातों की शुरूआत वैसी ही थी
जैसी फ़्लाइट में अगल-बगल बैठे दो अजनबी मुसाफ़िरों की होती है,
झिझक भरी, औपचारिक, शब्द कम, सन्नाटा ज़्यादा
पहली ही मुलाकात में हमें समझ जाना चाहिए था कि हम दोनों की दुनिया अलग है
, 50, 56);">उतनी ही अलग जितनी हवा है दिल्ली और मसूरी की
लेकिन हम दोबारा मिले, जैसे मार्च के महीने में सर्दी मिलती है गर्मी से
फिर तीसरी बार, जैसे शाम के आसमान में दिन मिलता है रात से
फिर चौथी बार हम शब्दों के बीच की संधी की तरह मिले, एक नया शब्द बनाने के लिए
और पाँचवी बार हम तालू और जीभ की तरह मिले, किसी खट्टे चटखारे के लिए
फिर, छठी, सातवीं और न जाने कितनी बार
सिर्फ़ इसलिए मिले कि साथ मिलकर गिनतियों का ये हिसाब भूल सकें
तुमने मुझे सिया, मर्करी और लेनन के गाने सुनाए
मैंने तुम्हें फ़ैज़, फ़राज़ और ज़ौक़ की ग़ज़लें सुनाई,
फिर उनका अनुवाद भी समझाया
तुम अकेले में चाय बनाने लगे,
मैं ऑफ़िस में शहद घोलकर पीने लगा ब्लैक कॉफ़ी
मेरे कमरे में बजने लगे थे एड शेरीन के गाने
तुम हेडफ़ोन पर सुनने लगे थे ग़ुलाम अली की ग़ज़लें
नदी के किनारे पास आने लगे थे
नदी संकरी हो चली थी
लेकिन अब नदी की कहानी में किसी की दिलचस्पी नहीं थी
अब ये कहानी किनारों की हो चली थी,
किनारों के मिलन की कहानी
आखिर किनारे मिल ही गए
और ये प्रेम कहानी सरस्वती कह लाई।