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Rishabh Goel

Others

0.6  

Rishabh Goel

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मेरी क्या गलती थी?

मेरी क्या गलती थी?

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किसी सतरंगी आसमाँ सा मेरा चित्त खिल सा गया

जब पता चला कि मेरा अस्तित्व मिल सा गया.

प्रसन्नता की वो लहर मुझे छू सी गई

मानों मेरे कोमल मन को रौशनी मिली नई.

फिर दिन बीते और मेरा देह बढ़ने लगा

मानों अँधेरे भवन में रौशन एक दीप जलने लगा.

आज मेरे लिऐ दिन उमंग ले के आया

‘आप पापा बनने वाले हो’ माँ ने पापा को बताया.

मैं देख तो ना सकी पर महसूस कर सकती थी

पापा की उमंग की हर पंक्ति पढ़ सकती थी.

चाचा-चाची, नाना-नानी, मामा, फूफा और बुआ

सबको मेरे अस्तित्व का संदेशा हुआ.

आज सुबह सामान्य सी ना थी

रोज़ मिलने वाली माँ की वो मुस्कान भी ना मिली.

मेरे कानों में कुछ अल्फाज़ पड़ रहे थे

पापा माँ को डॉक्टर के पास ले जाने की बात कह रहे थे.

 पापा करना चाहते थे आज मेरा प्रथम दर्शन

ये सुन कर पुनः खिल उठा मेरा तन-मन.

माँ को एक मशीन से ले जाया गया

मुझ पर पड़ा चमकदार रौशनी का घना साया.

 मुझे डर लगा मेरा कोमल चित्त घबराया

माँ! वो चमकदार रौशनी का साया मुझे नहीं भाया.

मैंने कुछ सुना डॉक्टर ने पापा को कुछ बताया

एक नन्हीं सी कली खिलेगी, उन्होंने ये समझाया.

पर माँ! मुझे अब पापा की वो उमंग क्यों ना दिखी

बोलो ना माँ! भगवान ने क्या थी मेरी किस्मत लिखी?

 क्यों उस दिन के बाद तुम दोबारा ना मुस्काई

क्यों मेरे सतरंगी आसमाँ में काली घटा छाई ?

फिर उस दिन ऐसा क्या हुआ माँ!

जो पापा ने तुम्हें मारा?

मैंने सुना माँ!

उन्हें एक बेटा चाहिऐ था प्यारा.

आज फिर एक अजीब हलचल ने मुझे घेर लिया

ऐसा लगा सारे जग ने मुझसे मुँह फेर लिया.

 माँ पापा के अहसास से परे कई अहसास हुऐ नऐ

पर ये अहसास ना थे बिल्कुल भी कोमलता भरे.

मेरे अविकसित शरीर पर ख़ंजर चला दिया

मेरे अधूरे जीवन पर पूर्ण विराम लगा दिया.

माँ रोती रही, बिलखती रही, चीखी-चिल्लाई

पर किसी को उनकी चीखें ना दी सुनाई.

आज भी ना पता चला कि मेरी क्या गलती थी

क्या बस यही कि मैं लड़का नहीं, लड़की थी?

क्या बस यही की मैं लड़की थी?

 


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