रौशनदान
रौशनदान
रौशनदान
शीत ऋतु का कहर है,कोहरा है धुँधला-धुँधला
सूरज भी नाराज़ है, कम्बल में है दुबका हुआ
ये पेड़,ये शाखें,ये फूल,सब कितने गुमसुम बैठे हैं
ना किसी से बोलते हैं,न जाने किस बात पे ऐंठे हैं
तुमने भी तो खिड़कियाँ बंद कर ली हैं
अब छत पर भी नहीं आती
दरवाज़े भी खुलते हैं कभी-कभी
जब दूध वाला देता है कर्कश सी दस्तक
या अख़बार वाला लता है कोई नई सी ख़बर
सोचता हूँ मैं तुम्हारा रौशनदान बन जाऊँ
दिन भर ऊपर बैठा टकटकी लगा कर तुम्हें देखता रहूँ
रात होते ही अँधेरे में कहीं ग़ुम हो जाऊँ
तुम्हें दिन भर
का उजाला दूँ,और सारी सर्द हवाओं को रोक लूँ,
धूप खिलते ही तुम्हें पहली किरण दूँ, मिट्टी के कणों से तुम्हेँ छू लूँ
तुम्हारी पहली हँसी, पहली मुस्कुराहट,पहली उबासी निहारूँ
जब ठिठुरने लगो तुम रज़ाई में,तुम्हें ज़रा सी कुनकुनी धूप दूँ
जब शाम का पहर हो, तेज़ हो हवा और छाई हो बदरी
बत्ती हो गुल और बंद हों सारे दरवाज़े-खिड़की
तब तुम्हारे नन्हे-लड़खड़ाते कदमो को मैं थोड़ा सा उजाला दूँ
तुम्हे आगे का रास्ता दिखाऊँ, तुम्हें गिरने से रोक लूँ
इसी तरह तुम्हारी ज़िन्दगी के सारे अँधेरे मिटाऊँ
सोचता हूँ मैं तुम्हारा रौशनदान बन जाऊँ
-ऋषभ