होनहार
होनहार
माँ की आँखों का था तारा,
पापा के माथे का था गौरव
वो अभिमन्यु बनने निकला था,
जब ज़माना अंधेर था कौरव।
हर छेत्र में वो अव्वल था,
पढ़ने में वो होनहार था,
परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ,
ज़िन्दगी के नए सफ़र को तैयार था।
अच्छे कॉलेज में दाखिला कराया,
माँ-बाप ने पूरा अपना फ़र्ज़ किया,
कोई कमी ना रह जाए बेटे की पढाई में
इसलिए पापा ने बैंक से क़र्ज़ लिया।
फिर दिल पर पत्थर रख
उसको हॉस्टल में छोड़ा था
बेटे को छोड़ने में दुःख ना हो
इसलिए मान ने हर आंसू को रोका था।
उमंगो से भरे होनहार की
आँखों में माँ-बाप का सपना सजता था
दुनियादारी की परवाह से दूर,
वो बस अपनी पढाई करता था।
पर एक रात आसमान ज़ोरो से गरजाया था,
जब सीनियर्स ने होनहार को अपने कमरे में बुलाया था।
होनहार को डर लगा,
साथ के छात्रो ने भी खूब समझाया,
जो भी वो पूछे बस सिर हिला कर उत्तर देना,
अपने आत्म सम्मान को त्याग देना,
उनका हर कहा मान लेना।
सीनियर्स ने ऊट-पटांग सवाल पूछे,
उसका खूब मज़ाक बनाया
इंसान नहीं वो जानवर थे,
उन्होंने होनहार को बड़ा डराया।
पर माँ-बाप की खातिर होनहार कुछ न बोला,
उसने सब कुछ सहा।
अब इंसानियत की सीमाओं को लाँघ
उन्होंने होनहार से कुछ घिनोना करने को कहा।
ना कर सका वो अपने संस्कारो से समझौता,
अपने सम्मान को वो जीत गया।
सीनियर्स ने प्रताड़ित किया,
जानवरों की तरह मारा,
धुंदली दिन सा वो बीत गया।
रैगिंग की इस आग में
हर साल ना जाने कितने होनहार जल जाते हैं।
कितने ही माँ-बाप के सपने जलते हैं,
कितने ही घरों के चिराग बुझ जाते हैं।
किसी की ज़रा सी मस्ती के लिए
किसी के सपने छिन जाते हैं।
किसी की ज़रा सी मस्ती के लिए
किसी के सपने छिन जाते हैं।