नारी
नारी
बग़ावत का शोर गूंजता है ज़हन में
ख़ामोश क्यूँ फिर भी रहती हैं,
दर्द हूकँता है जिस्म के पोर पोर में,
है चुप्पी ओढ़े,फिर क्यूँ रहती हैं।
रिश्तों को बचाने के ख़ातिर अपनों से ही,
जाती हैं हर बार छली,
बन जाती है पत्थर की, हँसते लबों से
ज़ख़्मों को सिलती रहती हैं।
बिखरी जब भी टुकड़े - टुकड़े,
समेट वजूद को,फिर भी सँवरती रहती है,
स्नेह सुधा बरसा सबमें,बन ममता
की मूरत, मोम सी पिघलती रहती है ।
डर से महफ़ूज़ कर सबको
दुआओं की दहलीज़ बनी रहती है,
दर्द कभी बाँटती नहीं अपने,
कोरों में दबा अश्कों को मुस्कुराती रहती है।