"नारी उत्पीड़न पर कविता"
"नारी उत्पीड़न पर कविता"
क्या ऐसी खौफनाक रात,
हर रोज यूं ही दस्तक लायेगी।
जहां हवस की भूख,
जिस्म को भी राख कर जायेगी।
कब वो घड़ी आएगी,
जब हर एक लड़की,
दिन हो या रात, घर हो या बाहर,
खुद को महफूज़ पायेगी।
जब- जब,
मासूम सी ज़िंदगियों को उसने,
अपनी हवस का शिकार बनाया होगा।
ऐसा कदम उठाने से पहले,
ये ख्याल एक बार भी उसके
दिमाग ना आया होगा।
कितना तड़पी होगी,
कितना चिल्लाई होगी,
दर्द से बेहाल,
किसी को मदत को जरूर बुलाई होगी।
मेरी तो सोचकर ही रूह कांप उठती हैं,
फिर बेटी के ना मिलने पर,
क्या बीती होगी उन मां-बाप पर,
उनका दिल भी कितना घबराया होगा।
बस कसूर इतना था उसका,
कि वो एक लड़की थी,
इसलिए इन दरिंदो ने ये कदम उठाया होगा।
कुछ की उम्र थी खिलौने से खेलने की,
तो कुछ की किताबों से पढ़ने की,
तो कुछ की खुद को साबित कर समाज से लड़ने की,
कुछ की जिम्मेदरियों के साथ आगे बढ़ने की,
मासूम सी ज़िंदगियों पर अपनी मर्दानगी दिखाकर,
मैं पूछती हूं ऐसा भी कौन सा सुकून पाया होगा।
उन जैसी ना जाने कितनी लड़कियों के दिल में,
इस सवाल ने दरवाजा खटखटाया होगा।
सिलसिला यहीं नहीं होता खत्म,
फिर किसी ना किसी के लिए जाल बिछाया होगा।
बस कुछ दिन तक इन वारदातों का काफिला,
हर बढ़े से बढ़े चैनल की सुर्खियों पर छाया होगा।
फिर नई आफताब की रोशनी के साथ,
वापस इन्हीं घटनाओं का सिलसिला,
दुबारा किसी की जिंदगी में काला अंधेरा लाया होगा।
मैं कहती हूं कि,
अगर दरिंदगी आगे भी ऐसी ही रही जारी,
तो अगली हम में से किसी की भी हो सकती बारी।
तो खुद का रक्षक, खुद को बनाना पड़ेगा।
अब ना खाकी वर्दी और ना ही कोई कानून,
अपनी हिफाज़त का दायित्व स्वयं को उठाना पड़ेगा।
चुकीं कानून भी हो तो इतना सख्त हो,
जहां अदालत की दी गई तारीखों का इंतजार नहीं,
इन दरिंदो को सजा देने का खुद का वक्त हों।
जो कर दे छल्ली छल्ली सीना,
छीन ले सांस के साथ ज़िन्दगी का सुकू भी।
ऐसे अलग करे खून का एक-एक कतरा,
सोचे भी अगर नातर्स इंसान ऐसा करने का,
तो जिस्म के साथ तड़प उठे उनकी बज्जात रूह भी।
