Na jaane kya kya
Na jaane kya kya


ना जाने क्या क्या समझाने लगता हूँ
दिल को मैं खुद हीं बहलाने लगता हूँ
उम्मीदें जब दिख जाती हैं आँखों में
थपकी देकर ख़्वाब सुलाने लगता हूँ
और उसे मैं क्या बतलाऊँ, क्या हूँ मैं
दुनियाँ भर की बात बताने लगता हूँ
खुद की हालत देख के खुद शर्माता हूँ
खुद हीं खुद से आँख चुराने लगता हूँ
शाम के आने में जब देरी होती है
धूप को अपना हाल सुनाने लगता हूँ
रो देता हूँ जब रोने को जी चाहे
फिर आँखों से प्यार जताने लगता हूँ
वैसे तो सब अच्छा हीं है दुनिया में
फिर क्या है जिससे घबराने लगता हूँ
उससे मिलता हूँ उसके जैसा होकर
अपने अंदर आग लगाने लगता हूँ
अपना चेहरा याद रहे इस डर से मैं
खुद को मिलने आने-जाने लगता हूँ
दिल की गलियों में कोई दस्तक आती है
दरवाज़े पर कान लगाने लगता हूँ
रोता हूँ तो कंधा मेरा दुखता है
थक जाऊँ तो ख़्वाब बिछाने लगता हूँ