न जाने क्यूँ
न जाने क्यूँ
मन में बढ़ रही है उलझन, न जाने क्यूँ
वक्त जैसे थम सा गया हो, न जाने क्यूँ
'क्यूँ' , 'कैसे' ये सवाल हमेशा यू ही मंडराते रहते है
जवाब उनके न जाने कहाँ छिप जाते है
सोचती हूँ ये सारा खेल उस वक्त का ही है
कभी अपनापन जताता, तो कभी पराया कर देता है
ये तो अपनी मासुमियत है, जो हालात से समझौता कर लेते है
वरना हसरतें तो बेहिसाब है, चैन से जीने कहा देती है
जीने लगी हूँ फिर भी वो लम्हे, मैं अभी अपने हिसाब से
दोस्ती जो कर ली है अब मैने अपने ही ख्वाबों से