मुट्ठी भर वक़्त
मुट्ठी भर वक़्त
कभी अपने लिए, कभी अपनों के लिये
वह कई रूप बदलकर बदलकर जीये
जीवन कल काल ,वह नर हो या नारी हो
चाहे वह भिक्षुक हो या ताज अधिकारी हो
जन्म स्थान से चलकर जाता श्मशान तक
कभी वो जीवित तो कभी हो बेजान तक
हर बार वह फफक फफक कर रोता रहा
ये मालिक तेरे दिए वक्त को वह खोता रहा
दिन ब दिन वह खर्च करता गया
महफ़िल महफ़िल अर्ज करता गया
वह मति का मारा ये सोच न सका
फिसलते मुट्ठी भर वक्त रोक न सका।