मुसाफिर
मुसाफिर
अनजान गलियों का मुसाफिर हूँ,
अपनी ही गलियाँ भूल गया।
परदेसी पानी पीते पीते,
घर का स्वाद भूल गया।
निकला था सफलता की खोज में,
खुद की परिभाषा भूल गया।
मुलाकात हुई मेरी तुझसे,
तो साथ निभाना भूल गया।
कहता मैं सबसे अलग खुद को,
वैराग्य में जीना भूल गया।
नई मंज़िल की ख़ोज में,
पुरानी से नाता छूट गया।
इस शहर की शैली में,
मैं अपने सुर भूल गया।
इस झूठ के दामन में,
अब सच से नाता टूट गया।