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Renu Mishra

Abstract

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Renu Mishra

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मुर्दा खामोशी

मुर्दा खामोशी

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तेरे जग में भीड़ बहुत है

आगे बढ़ने की होड़ बहुत है


मंज़िल की मुर्दा खामोशी 

रस्तों का पर शोर बहुत है


ख़्वाबों के साये को थामे

जीने की घुड़दौड़ बहुत है


बुत से दिखते चलते फिरते

मरे हुओं की फ़ौज बहुत है


पीठ में खंज़र...भोकते

प्यार जताते यार बहुत है 


झूठ की इज़्ज़त शान बढ़ाते

सच्चाई की हार बहुत है


अंबर को छूने की कोशिश 

धरती पर लाचार बहुत है


मानवता की जात बताते

मज़हब के व्यापार बहुत हैं 


लेखकों की भीड़ में गुम 

पाठकों की माँग बहुत है 


सहरा में दो बूँदे ढूँढे

सागर की ये प्यास बहुत है


हरित आभा धरती का छीने

बस्ती के विस्तार बहुत हैं


मोहब्बत के इक ठौर को तरसे

नफ़रत के आधार बहुत हैं


तनहाई से अपने लड़ते

तेरे जग में भीड़ बहुत है


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