मर्यादा
मर्यादा
मैं स्त्री हूँ अपनी मर्यादा जानती हूं,
मां ने आँचल में ही सिखा दिया,
क्या ऊंच नीच है ये बता दिया।
दहलीज़ तुम्हारी तय है सुनो,
उसको कभी न लांघना।
इज़्ज़त तुम्हारे हाथ सबकी,
बस इतना तुम जानना।
घुटन हुई जैसे जीवन से,
कैसे जिऊंगी मैं ऐसे।
मां से मन को खोल दिया,
खुलकर जीना है बोल दिया।
सौं बंदिशें मुझे समझाकर,
लोक लाज की बात बताकर।
जी लेना जब ब्याह रचेगा,
नया जीवन जब तुझे मिलेगा।
हल्दी,सिंदूर,महावर लगा,
सुहागिन का रूप सज़ा।
मन में आशाओं के दीप जला,
एक नवजीवन का द्वार मिला।
मां झूठ कहा था तूने मुझे,
कि जी लेना जी भर पी के घर।
मर्यादा की गठरी तो यहाँ और बड़ी है,
हर बात में अभद्रता भरी है।
पहले ही दिन समझा दिया गया,
मर्यादा में रहना ये बता दिया गया।
मुझे पसंद नही स्त्री का बोलना,
बातों बातों में समझा दिया गया।
दिन रात उलाहना ,ताने,बातें,
शायद इतना काफी न था।
मर्दानगी पर एक प्रश्न चिन्ह भी था,
मारो इसको ,सुन दिल सुन्न भी था।
हुआ सिद्ध तुम भी पुरुष हो,
एक निर्बल पर वो उभर आया।
रोज़ हुआ यह जीवन का क्रम,
जो न किया उसका भी पाया।
अंत करो इस जीवन का अब,
एक दिन यह हिम्मत मुझमे आई।
चीख पड़ी काली सी मैं,,,,,,
सुनो मर्यादा के ढोंगी पुजारी ,
मर्यादा मैं भी रखती हूं,
तुम तब तक चीख सकते हो,
बस जब तक मैं चुप बैठी हूँ।।
मैं स्त्री हूँ,अपनी मर्यादा जानती हूं।