मंज़िल
मंज़िल
मँज़िल है कहाँ नही जानता कोई, बस दौड़े जा रहे है हम सब अपनी ही धुन में ।
ना दिन मे है चैन, ना रातों में करार है , बस इक अन्जान मँज़िल की तलाश है ।
मैं भी चली जा रही हूँ चाहे-अनचाहे रास्तो पर, मालुम नहीं कहाँ जाकर के रूकना है , कितने बसन्त गवाँ दिये है , और ना जाने कितने और उसके भी अभी झेलने है ।
सब दौड़ रहे है मंज़िल की तलाश में इक-दूजे को पीछे की ओर धकेलते हुए , मै भी तो उस भीड़ का हिस्सा बन दौड़े चली जा रही हूँ । कोई राह में गिर जाता है , तो कोई पैरों तले कुचला जाता है , कोई किसी को धक्का देकर आगे निकल जाता है , और कोई मायूस खड़ा देखता रह जाता है ।
कहाँ है मंज़िल , कहाँ ठिकाना या इलाही कुछ तो बताना...मैं भी इस अँधी दौड़ में भाग रही हूँ , मेरे मालिक, मेरे दाता अब तो आजाओ इस भटकी हुई दुनियाँ को कोई राह दिखाओ
अब तो आजाओ. ...अब तो आजाओ...
