मेरी ख़ामोशी
मेरी ख़ामोशी
ये भीतर की खालिश से है जां मेरी परेशां थोड़ी सी
ये उभरते, बिखरते जज्बातों की , हसरतों की आंधी
बेकाबू से जलजले जो उठे ,फ़िर गिरे, बहे ज्वाला से
कि ये सब गवाह हैं, जिम्मेदार हैं, बस मेरी ख़ामोशी के,
मुझे चुप करा के जीत गए दर्द मेरे हालातों की जंग
मैं ख़ामोश बुत सी देखती हूं अक्सर ये तमाशे दंग,
आओ देखो ..अब दे दो इसका भी ईनाम मुझे
बेहिसाब जिल्लत सहने का पहना दो ताज मुझे,
के हर दर्द की हद होती है....
और चिनाब भी जब सागर से मिलती है
अपना अक्स खो के बहुत रोती है ,
कभी तो होगा सामना.. ख़ामोशी का ख़ामोशी से
तब बाहर निकलेगा गुबार , और टकराएगा आंखो से
वो दिन बस कुछ ख़ास होगा ...
और बरसेंगे तीर फ़िर मेरी भी कलम से।
