मेरी अभिलाषा
मेरी अभिलाषा
भोर भयी भानु भी, भूमि को सहलाये।
लाल चुनरी ओढ़ के, उषा भी इतराये।
अलसाता चाँद भी, क्षितिज तक जा पहुँचा।
मैं लेटा स्वप्नों को, मीलित नेत्रों में सजाये।
अरुणिम आभा आने से, आरम्भ हुआ नया।
तिमिर था सर्वत्र छाया, अंत उसका हो गया।
यही तो है प्रकृति का, निरंतर चलता नियम।
हर रात्रि के पश्चात भोर है, ऐसी प्रभु की दया।
कूक-कूक कर, क्या कोकिल कहती?
पिघले नीलम की नदिया निरंतर बहती।
दूर पर्वत पर एक दर्पण उभर आया है।
जिसमें मेरी कल्पनाओं की छवि उभरती।
दिखता विषाद रहित, एक सुन्दर विश्व वहाँ।
और हर्षोन्मत्त प्राणी करते, नूतन नृत्य जहाँ।
न क्षुधा ग्रस्त न भयभीत, न चिंतित कोई दिखता।
क्रोध लोभ ईर्ष्या जैसे अवगुण का स्थान कहाँ।
ये कैसी अद्भुत रचना है, कौन सा है संसार।
कहाँ कहाँ तक फैला, इस स्वर्ग का विस्तार।
क्या नियम क्या विधान, जिनका पालन होता है?
भला कौन सी व्यवस्था, जो इस जग का आधार।
कैसे रहते मानव सारे बिना युद्ध और द्वेष?
कैसे हुआ समाप्त समस्त, ईर्ष्या और क्लेश?
सत्य वचन है यदि हटा दें, हम मिल अवगुण सारे।
सत्य स्नेह दया धर्म, करुणा ही तो बचती शेष।
सूर्य का यह प्रखर प्रकाश, देता हम सबको आशा।
कितनी काली रात हो, मन में ना भरो हताशा।
भोर हमेशा आयेगा और, छंट अंधेरा जायेगा।
यही विश्व स्वप्न लोक बने, रखता मैं अभिलाषा।