मैं!
मैं!
रोज़ टूटती हूं, बिखरती हूं मैं,
फिर खुद ही संभलती हूं मैं,
किसे पता, इस तरह रोज़ निखरती हूं मैं।
खुद से ही लड़ जाती हूं मैं,
बहुत कुछ सहन कर जाती हूं मैं।
खुद से ही हार जाती हूं मैं,
हर हार में जीत जाती हूं मैं।
लड़खड़ाती हूं, ठोकरें खाती हूं मैं,
गिरती हूं, फिर उठ खड़ी हो जाती हूं मैं।
अपनी ही उंगली थाम खुद को चलना सिखाती हूं मैं,
अपने ही डर को डराती हूं मैं।
रोज़ मरती हूं, मिटती हूं मैं,
अपने ही अस्तित्व से डरती हूं मैं।
फिर नई कली की तरह पनपती हूं मैं।
हर पल होठों पर मुस्कुराहट रखती हूं मैं,
पर कौन जाने किस कदर मचलती हूं मैं।
कितनी बातें अपने अंदर दफन करती हूं मैं,
उन्हें पैरों तले रौंद कर आगे बढ़ती हूं मैं।
अब तो तूफान को भी चीरकर पार कर जाती हूं मैं,
मन में उठे भूचाल को कैसे शांत कराती हूं मैं?
अब तो आंखों की गहराइयां भी नाप जाती हूं मैं,
अंधकार से भरे रास्ते को रोशन कर पाती हूं मैं।
कभी कभी खुद हैरान हो जाती हूं मैं,
आखिर इतना सब कैसे कर पाती हूं मैं।
कोसों दूर अकेले चलती हूं मैं,
नित नए ख़ाब बुनती हूं मैं।
खुद का खुद से वास्ता कराती हूं मैं,
नित नए किरदार निभाती हूं मैं।
बस इतनी सी कहानी में समाती हूं मैं,
कुछ इस कदर अपनी पहचान कराती हूं मैं।
खुद से बिछड़कर, खुद को पाती हूं मैं,
बस इसी तरह जगमगाती हूं मैं।।