कहानी एक लड़की की!
कहानी एक लड़की की!
जैसे ही माँ के गर्भ से जन्मी एक बिटिया।
वैसे ही लगा कि जैसे डूबी सबकी लुटिया।।
कुछ ने कहा घर में लक्ष्मी आई।
ये कहकर उन्होंने तो खुशी जताई।।
पर कुछ के तो थे मुँह बने हुए।
गुस्से से बिल्कुल थे सने हुए।।
यहीं से फिर शुरू हुई एक कहानी।
बिटिया धीरे - धीरे फिर होने लगी सयानी।।
जैसे जैसे वह बड़ी होने लगी,
उसे बार-बार आभास कराते कि वह लड़की है।
ये मत कर तू, वो मत कर तू;
तू ये सब नहीं कर सकती है।।
रसोई घर है तेरे लिए,
किस्मत तू अपनी वहीं आजमाना।
आखिर में फिर तुझे एक दिन,
अपने ससुराल ही तो है जाना।।
बेटा होता अगर तो वंश को आगे बढ़ाता।
बुढ़ापे का सहारा बन, चार पैसा कमा के लाता।।
घर की इज्ज़त बताकर उसे डराया धमकाया।
चार दीवारी के अंदर ही जब रहना उसे सिखाया।।
जहाँ उसका न कोई दोष था,
वहाँ भी उसे ही दोषी ठहराया।
ये कैसा सोता हुआ समाज है,
जिसे हमने बनाया।।
बचपन से ही जब उसके मन में,
यह मानसिकता पनप गई।
पुष्प बनने से पहले ही,
उस कली की हिम्मत बिखर गई।।
आखिर ये कठोर नियम क्यों समाज ने अपनाया।
हर बार एक लड़की को ही क्यों किया पराया।।
इतने संघर्ष के बाद भी, उसने सबको अपनाया।
अबला कहने वालों को भी, मुँह के बल गिराया।।
