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Navin Joshi 'Naval'

Abstract Inspirational

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Navin Joshi 'Naval'

Abstract Inspirational

मैं नहीं मधु का उपासक

मैं नहीं मधु का उपासक

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मैं नहीं मधु का उपासक, 

    है गरल से प्रेम मुझको !


कीर्ति, सुख, ऐश्वर्य, धनबल,

   बाहुबल और बुद्धि वंचित, 

 सम्पदा से हीन हूँ मैं,

   फिर मुझे क्यों दम्भ होगा ?

सत्य शिव का मैं पुजारी, 

      मैं नहीं याचक बनूँगा,

नहीं जगत से बैर मेरा,    

     स्वाभिमानी ढंग होगा !

शुद्ध मति के प्रेम से ही 

    जगत का कल्याण होगा, 

छल-कपट से दूर हूँ मैं, 

     है सरल से प्रेम मुझको,

मैं नहीं मधु का उपासक, 

    है गरल से प्रेम मुझको !!


वेदना के नवल कारक 

   नित खड़े प्रतिबिम्ब जैसे,   

द्वेष से अनभिज्ञ-संस्कृति-

     से यही शिक्षा मिली है !

जो विधाता ने दिया वह-

    फल मुझे पर्याप्त है बस,

पद, प्रतिष्ठा, पारितोषिक -

     की कहाँ इच्छा पली है?

स्वाभिमानी हो सदा, 

   विचरण करें पावन धरा पर,

युक्ति है गतिशील फिर भी, 

    है अचल से प्रेम मुझको,

मैं नहीं मधु का उपासक, 

    है गरल से प्रेम मुझको !!


अल्पता में ही सफल 

     होते रहे हैं शिष्टजन सब, 

 देव निर्मित इस धरा में, 

    मधुप भी मकरंद भी हैं!

सूर ने तो बिन नयन के- 

       देव के दर्शन किये हैं, 

ध्यान से देखें तनिक तो, 

     गीत भी हैं, छंद भी हैं !  

राह चलते मुझे भी 

  अगणित मिले हैं अडिग भूधर,

किन्तु बहती जान्हवी के, 

   शुद्ध जल से प्रेम मुझको,

मैं नहीं मधु का उपासक, 

   है गरल से प्रेम मुझको !!   



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