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नवीन जोशी 'नवल'

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नवीन जोशी 'नवल'

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शीत-निशा

शीत-निशा

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शीत-निशा तुम किधर गई थी ?


कौन गोद में रैन- बसेरा, किस डाली पर दिवस बिताया ?

किनको तुमने इतने दिन तक, अपनी साँसों से कंपाया ?

होली, तीज, दिवाली बीती, क्या तुझको यह याद न आया,

अचरज! तुमने इतने हिम को, इतने दिन तक कहाँ छुपाया ?

सरस गुदगुदी रातों को भी, ले अपने ही साथ गई थी !

शीत-निशा तुम किधर गई थी ?


मैंने भी तो त्याग दिए थे, तुम बिन अपने सब आच्छादन, 

तुझ वियोग में फेंक दिए थे, सभी ओढ़नी और बिछावन ।

फिर ढूंढे हैं हर कोने से, सभी बिछौने- गरम रजाई,

कौतूहल वस सजा दिए हैं, जब देखा तुम वापस आई ।

सच में तुझे देखने मेरी, दोनों अंखियाँ तरस गई थी ,

शीत-निशा तुम किधर गई थी ?


ज्येष्ठ धूप में देह तपायी, नव-बसंत मैंने खेला था,

भादो के कारे मेघों को, बिना ओढ़नी के झेला था !

मन करता आलिंगन कर लूँ, तुझको दिल का हाल सुनाऊँ, 

विविध रंग देखे हैं पीछे, अब बीता इतिहास बताऊँ ?

एक समय धरणी में सारी, फूल-पत्तियां कुम्हल गई थी,

शीत-निशा तुम किधर गई थी ?


अभी न जाना कहीं प्रिये तुम, अब कुछ दिन हम संग बिताएं, 

बीते बहुत दिनों में आई, अपने -अपने हाल सुनाएँ ।

तुम्हें देखकर हर्षित होगी, निश्चित ही संगिनि भी मेरी,

संक्रांति भी तिल-लड्डू ले, खड़ी बाट जोहती तेरी ।

कुछ तो पता उधर का देदे, आज तलक तू जिधर गई थी,

शीत-निशा तुम किधर गई थी ?


विघटित घर-परिवार आज अब, तुझको प्यार कहां कर सकते!

याद मात्र कर सकता हूं बस, दिन वे फिर वापस आ सकते ?

पूरा घर परिवार शीत में, साथ ओढ़ कर एक रजाई,

अंताक्षरी, पहेली, किस्से, ताप अंगीठी दिये सुनाई।

शिक्षाप्रद कुछ कथा-कहानी, बूढी़ दादी बता गई थी !

शीत निशा तुम किधर गई थी?


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