मैं, मैं हूं
मैं, मैं हूं
मैं, मैं हूं और सदा मैं ही रहूं
मैं क्यों खुद को बदलूं ?
मेरी सोच मेरी है,
जानती हूं ये खरी है !
मेरा हृदय अनमोल है,
कुछ है तो प्रेम ही इसका
मोल है!
इसे न लालसा धन की,
न यह मांगे ऐशो-आराम
न इसे चाहत वैभव की !
बस दो वक्त रोटी और
ज़िन्दगी मिले चैन की !
वो बदले खुद को
जिनके हृदय पाषण
होते है,
जो दिखते तो है जिंदा,
पर बेजान होते है !
वो बदले जो रिश्तों को
एक क्रमांक बना देते हैं,
हर इतवार बात करना
अपना व्यथा फर्ज़ बना लेते है !
वो बदले जो जीवित मर्म भाव
जीवन भर नज़र–अंदाज़ करते है,
और फिर उन्हीं निस्पंद देहों को
श्रध्दांजलि देते है, याद करते है !
बदले उन्हें जो शामिल है
चुहों की दौड़ में,
आत्मीयता से परे, रूपयों
की होड़ में !
मैं खुश हूं जो मैं हिस्सा न
हीं
किसी प्रतियोगिता का,
मैं खुश हूं जो मुझे प्रमाण नहीं
देना अपनी योग्यता का !
ऐसा नहीं कि मेरे सपने नहीं,
ऐसा भी नहीं कि
मेरा कोई ध्येय नहीं,
बस, बात इतनी-सी है
मेरे खुश होने की कोई
शर्त नहीं !
दिल इस बात से खुश हो जाता है कि
कभी– कभार कोई, मेरे घर आ जाता है
मन ये देख मचल उठता है,
कि चाँद आज भी मेरे
झरोखे से दिखता है !
इस भागती – दौड़ती दुनिया में
ढूंढ लेता है दिल मेरा, अपनों को !
बढ़ती दुरियों में, ये समझता है
जरूरत मिलने – मिलाने की,
स्पर्श की भावना मैं जानती हूं,
चाँद को नहीं, मैं इंसानों को
छूना चाहती हूं !
रोज़ बदलती है दुनिया
पर मैं, मैं ही रहना चाहती हूं!
बाहर कुछ भी दिखे,
पर अपने भीतर
मैं खुद को जिंदा देखना चाहती हूं !
मैं खुद को जिंदा देखना चाहती हूं !