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Mamta Singh Devaa

Abstract

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Mamta Singh Devaa

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" मैं भी डरती हूॅं "

" मैं भी डरती हूॅं "

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” मैं भी डरती हूॅं "

हां ! सच कहती हूॅं

सच में मैं भी डरती हूॅं,

मेरे स्वभाव पर मत जाना

मेरे रूआब पर मत जाना,


सबके पास नही आती हूॅं

सबके पास नही जाती हूॅं,

क्योंकि मुझे भी डर लगता है

ये मेरा मैं मुझसे कहता है,

अपनों के झूठ से डरती हूॅं


अपनों के फरेब से डरती हूॅं,

उनके अज़ीज़ बनने से डरती हूॅं

उनके अजनबी बनने से डरती हूॅं,

उनके प्यार से डरती हूॅं

उनके तकरार से डरती हूॅं,

उनके मेकअप से डरती हूॅं


उनके आवरण से डरती हूॅं,

उनके ज्यादा मीठे से डरती हूॅं

उनके ज्यादा तीखे से डरती हूॅं,

सच्चे अपनों का सामना कर सकती हूॅं

लेकिन अपनों के छिपे वार से डरती हूॅं,


इतनी तेज़ और बहादुर मैं

अपनों की हर चाल से डरती हूॅं,

हां ! सच कहती हूॅं

सच में मैं भी डरती हूॅं।


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