माँ
माँ
चूल्हे की सीली लकड़ियों को
फूंक फूंक सुलगाती
चूल्हा जलाती रोटी बनाती मां।
जब सीली लकड़ियों का
गाढ़ा कड़वा धुआं
गड़ता है माँ की आँखों में
तो टूट जाता है अश्रुओं का बांध।
मत छेड़ो इस दृश्य को
इस वात्सल्य को
यही अश्रु जब आटे में मिलेंगे
लोई बनेगी रोटी पकेगी,
और माँ अपने हाथों से
आँचल की छांव में
गुदगुदाती गोद में
दुलरा कर खिलाएगी,
तो उस ममत्व के सम्मुख
उस तृप्ति के सम्मुख
संसार के समस्त स्वाद
हो जाएंगे शर्मिंदा।
अमृत का दर्प चूर चूर हो जायेगा
हो भी क्यों न
मां का आशीर्वाद मां के हाथ
मां की गोद मां का आँचल
सभी कुछ,
अद्भुत अप्रतिम विकल्पहीन
माँ तुम्हें शत शत नमन।।
