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Prince Sharma

Abstract

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Prince Sharma

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लुप्त होती चिड़िया

लुप्त होती चिड़िया

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वह आती थीं मेरे बचपन 

के आँगन में अपने

पंख फैलाए हर दिन की

तरह एक नयां गीत गाते 

वे चिड़ियां,

जब आसमान में अपने 

साथी संग निकलती थी

तब गिनना चाहते हुए भी 

गिन नहीं पाते थे 

वसंत के बागो में खेतो में

छावं भरी शामो में 

मन को लुभा जाती थी

वे चिड़ियां,

नदी किनारे झील में 

बदलते मौसम के भीर में 

पेड़ों के उस डाली से 

सुखती हरियांली से 

क्यु दुर जाती हैं

वे चिड़ियां ,

इर्ष्या के इस वादी में 

गुनाह क्या है मेरा 

क्यु फिर एक नया

मील छोड़ जा रही हैं अकेला 

वे चिड़ियां~!



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