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Bhawna Kukreti

Abstract

4.5  

Bhawna Kukreti

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क्यों

क्यों

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ओ उदार इंसान !

तुम पत्थर से तो नही दिखते मुझे

मुस्कराते आँखोँ में उम्मीदें लिए

मिलते हो हमेशा हताश लोगों से

हालांकि देखा है हमेशा झेलते हुए

तुम्हे जीवन की कड़वाहट को 

धीरे धीरे सरकते समय की

घोर तपन में हमेशा ही।


तुमने कहा था

बेहद पसन्द आता है तुम्हे

हद से ज़्यादा जीवन के सभी रंगों संग

खेलना होली ईमानदारी से 

जबकि यही ईमानदारी ही दुखाती है

असह्य बनाती है तुम्हारा जीवन 

और नासूर सा हो जाता है

तुम्हारा मन।


यह क्या है ? 

आत्मसमर्पण तो नहीं है यह

ना ही है उत्कर्ष तुम्हारी जिजीविषा का

यह कैदी का लगाव हो कैद से ऐसा दिखता है 

हां यही दिखता है  तुम्हारे द्वारा

नाहक बुलाई जाती ह्रींस अनुभूतियों में

कर क्या रहे हो इस अमूल्य जीवन संग ?!

छल रहे हो क्या खुद को तुम जीवन मे

क्यों? यहाँ क्यों प्रार्थी होना है तुम्हे

हर मुश्किल घड़ी का

जो खुल कर तुम्हे जीने नहीं देती।


खुद के लिए

क्यों चाहते हो इतना दर्द

क्यों लेते हो कष्ट मानसिक

और करते हो प्रताड़ित स्वयं को निर्ममता से 

देते हुए अपनी ही पूरी हो जाने वाली उम्मीदें 

जीवन से हताश निराश लोगों को।

क्या यह तुम्हारा कोई बदला है

जीवन से उसके घटित होने से

या है यह बदला तुम्हारा

अपने आप से।


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