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क्यों हैं ?

क्यों हैं ?

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शमा को चाहे परवाना क्यों है,

हर एक पात की किस्मत टूट जाना क्यों हैं ।

हर चेहरा जाना पहचाना क्यों हैं,

मौत एक चलता फिरता ज़िंदगी का है आख़री ठिकाना,

फिर भी ये ठिकाना मेरा,

मुझसे अनजाना क्यों हैं ।।


सूरज को जलने का इतना ग़ुरूर क्यों है,

चाँद को चाँदनी में मचलने का सुरूर क्यों हैं ।

चकोर इन्तजार में बैठ राहे ताकता है सनम की,

पर फिर भी है जुदाई,

इतना बेदर्द उसका हुज़ूर क्यों हैं ।।


दिन जुदा जुदा,

रात इतनी खामोश क्यों हैं,

नशेमन है फ़िज़ा,

फिर ये दरख्त बेहोश क्यों है ।

सुबह के साये में पातो पे ये ओंस क्यों है,

बेववफ़ा रात को पाना चाहता है दिन आगोश में,

पर जो हो नही सकता कभी अपना,

उसे खोने का उसे अफसोस क्यों हैं ।।


मैं असमंज में हु की

कुछ सवालों के जवाब कई हैं,

पर्दानशीं होना चाहिए जिन्हें,

वो बेनक़ाब कई हैं ।

टूट जाते हैं जो दूसरों के करम से वो खवाब क्यों हैं ,

हर क़तरे - क़तरे की ज़िंदगी का,

हर पहर, हर बंदगी का हिसाब क्यों हैं ।।


दिन में आफ़ताब क्यों हैं

और रात में मेहताब क्यों है

भूली-बिसरी यादों के साये में

टूटे हुए ख़्वाब क्यों हैं।


मैं असमंज में हूं,

कशमकश की पहेली में उलझा हूं कि,

'सागर' की लहरों के दिल में

सवालों और उलझनों का सैलाब क्यों हैं ।।













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