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मधुशिल्पी Shilpi Saxena

Abstract

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मधुशिल्पी Shilpi Saxena

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क्या फिर भी स्वीकार हूँ!

क्या फिर भी स्वीकार हूँ!

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हूँ तीक्ष्ण मैं बुद्धि से

लाग लपेट से अंजान हूँ मैं,

दो टूक मे मैं रख देती

अपने दिल की बात को मैं,

दोगलापन मुझे न भाता

अगर मगर है मुझे न आता,

हाँ धनुष की टँकार हूँ मैं

वीरता की हुँकार हूँ मैं,

माना खुली किताब हूँ मैं

क्या फिर भी तुम्हें स्वीकार हूँ मैं!


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