क्या फिर भी स्वीकार हूँ!
क्या फिर भी स्वीकार हूँ!
हूँ तीक्ष्ण मैं बुद्धि से
लाग लपेट से अंजान हूँ मैं,
दो टूक मे मैं रख देती
अपने दिल की बात को मैं,
दोगलापन मुझे न भाता
अगर मगर है मुझे न आता,
हाँ धनुष की टँकार हूँ मैं
वीरता की हुँकार हूँ मैं,
माना खुली किताब हूँ मैं
क्या फिर भी तुम्हें स्वीकार हूँ मैं!
