क्या मुझे हक़ नहीं
क्या मुझे हक़ नहीं
हाँ मैं मज़दूर हूँ,
क्या मुझे खुश रहने का हक़ नहीं ?
माना सुबह की लालिमा के साथ,
चल पड़ता हूँ ढूंढने रोज़गार,
नयी सुबह की नयी उम्मीद,
क्या मुझे रखने का हक़ नहीं ?
तपती धूप और बहता पसीना,
झुकी कमर उस पर लदा बोझा,
गिलास भर पानी और दो रोटी,
क्या मुझे खाने का हक़ नहीं ?
कड़ी मेहनत के बाद जो मिलती,
खून पसीने की गाढ़ी कमाई,
घर पर पत्नी, बच्चों की आँखें,
क्या मुझे चमकाने का हक़ नहीं ?
न कोई छुट्टी, न कोई आराम,
जीवन में बस काम ही काम,
इस काम के बदले चार खुशी,
क्या मुझे बटोरने का हक़ नहीं ???