क्या कहूं
क्या कहूं
क्या कहूं मैंने क्या-क्या देखा,
हर शख्स के दो –दो चेहरे देखा,
जज्बात छलकते वादों को हमने,
मतलब के दांव पर चढ़ते देखा ।
क्या कहूं..........................
सुबह का सूरज ढलते देखा
बन के मीत बिछड़ते देखा,
चांद सिक्कों की खनक से
प्यार का चमन उजड़ते देेखा
क्या कहूं.......................
बातों पर भरोसा करके देखा
नातो पर भरोसा करके देखा
नाज था जिसकी यारी पे यारों
उन्हीं को रंग बदलते देखा।
क्या कहूं.....................
अपनापन छलकते देखा
वक्त की आंधी चलते देखा
गैरों की तो बात और थी
अपनों को दुश्मन बनते देखा।
क्या कहूं..........................
आदमी के वेश में शैतान को देखा
हैवान बनते इंसान को देखा
प्रातः जन्मी नैतिकता को हमने
अंत्येष्टि होते शाम को देखा
क्या कहूं मैंने क्या-क्या देखा
हर शख्स के दो–दो चेहरे देखा।
