कवि जन की पीड़ा गाता है
कवि जन की पीड़ा गाता है
चारू चन्द्र-शीतल किरणों से दग्ध हृदय शीतल करता है,
अपने कविता के माध्यम से कवि जन की पीड़ा गाता है।।
शब्दों के विष बुझे बाण से, तीखे पैने सधे वार से,
कविताओं में व्यंग लिए वो अपने शब्दों के प्रहार से,
राजनीति के गलियारों से युग-परिवर्तन करवाता है,
अपने कविता के माध्यम से कवि जन की पीड़ा गाता है।।
दमन जहां हो अधिकारों की क्रांति गीत के झंकारों से,
जहां कुरीतियां फन फैलाए आन्दोलन के हुंकारों से,
ओज पूर्ण कविता गाकर कवि नयी चेतना भर जाता है,
अपने कविता के माध्यम से कवि जन की पीड़ा गाता है।।
सरहद पर सैनिक की गाथा कविताओं में लिख जाता है,
सिसक रही विधवाओं की करुण कथा वो कह जाता है,
क्षुधा पीर भूखी जनता की व्यथा कृषक के कह जाता है,
अपने कविता के माध्यम से कवि जन की पीड़ा गाता है।।
करुण वीर वात्सल्य भाव से काव्य सृजन करता जाता है,
अलंकार नवरस छंदों से कविता में नवरंग भरता है,
कवि जलते अंगारों पर बैठा सप्तम सुर की लिखता है
समय की धारा में बहता कवि जन-मन की पीड़ा गाता है।।
चार दीवारों में बैठा कवि कविता से नवचेतन भरता,
युगों-युगों से युग प्रहरी बन युग परिवर्तन भी कवि करता,
काव्य की गंगा अविरल बहती सत्य सदा दिखला जाता है,
अपने कविता के माध्यम से कवि जन की पीड़ा गाता है।।
करता चिंतन राष्ट्र हितों का जीवन मूल्यों के संरक्षण का,
करता मंथन वो राष्ट्र धर्म पर मानवता के नित रक्षण का,
अपने ओजस्वी कविता से सत्ता - परिवर्तन कर जाता है,
अपने कविता के माध्यम से कवि जन की पीड़ा गाता है।।
