कुछ ना कुछ
कुछ ना कुछ
मुझे ही पता नहीं होता
क्या लिखूंगी मैं रोज़
ध्यान से ढूंढो तो
मिल जाती है मुझे विषय की खोज
कभी सोच में रहती हूं
कभी पढ़ती रहती हूं
कभी कुछ ना कुछ लिखती हूं
कभी कुछ ना कुछ सीखती हूं
यूं ही चलती है जिंदगी
कभी ना छूटे इसकी डोर
जैसे नाचे सावन के महीने में
जंगल में कोई मोर
लिखती हूं मैं कुछ ना कुछ
है सवार लिखने का भूत
ज्ञान बांटने से मिलती है खुशी
और दिल और दिमाग को संतुष्टि।
