कुछ लिखा सा...
कुछ लिखा सा...
कहानी क्या है ? वह जो कही गयी हो!जरूरी नही की हर कही गयी बात, कभी कही ही गयी हो। जैसे हमें बचपन मे दादी कहानियां सुनाती थी परियों की।क्या अब मान सकते हैं की परियां होती है? ऐसे ही मेरी कहानियां भी होती है।
हां, कभी कभी दादी नानी परियों का नाम हमारे नाम पर रख देती थीं । हमारी कुछ आदतें जो वे सुधारना चाहती या बनाना चाहती उसे जोड़ देतीं की हम इससे जुड़ाव महसूस करें, सीखें। हम खुश भी हो जाते थे कुछ पल को ।खुद को वही परी समझ लेते थे जब वो जादू करती थी।डर जाते थे, जब उसकी किसी आदत की वजह से उसे कोई राक्षस कैद कर लेता था। कैसे झट से मोह में पड़ जाते थे उस हिरन के जो नन्हे सींगों से लगातार चोट करके, ताला तोड़ कर,हमें आजाद कर देता था। और हम उसी सुकून में उस हिरन के साथ गहरी नींद में चले जाते थे।
बस ऐसे है बुनी जाती है दिलचस्प कहानियां, हमेशा से। कम से कम मैं ऐसे ही बुनती हूँ...परी कथा सा।
कितनी कहानियां ऐसी भी लिखीं हैं जहां हकीकत की कड़वाहट जमीन है मगर उसी पर मिठास की काल्पनिक घास को उगाया है। कितने पात्र, परिस्थितियों को गढ़ा है कहानी के वास्तविक सा लगने के लिए।
अक्सर नानी की गुनगुनाती लोरी में, कम में बहुत सारा भाव महसूस करते हुए चैन से सोये हैं।बस वैसे ही मैंने भी कविताओं में गुंथे हैं भाव अनकहे और ज्यादातर भरी है भावनाएं अनन्त सीमाओं तक अनेक प्रकार की कुछ अनुभूत और अधिकांशतः बस ..ऊपरी तौर पर। फिर हैरान भी हो जाती हूँ जब कभी अरसे बाद पढ़ती हूँ अपना लिखा..ये मैंने लिखा है??
ऐसा होता रहता है कि कई बार।फिर ख़ुद ही मुस्कराती हूँ, सर पर चपत लगाती हूँ कि भूलती बहुत हूँ।
सोचती हूँ, दादी की कहानी और नानी की लोरियों ने कितना सुंदर उपहार दिया है मुझे। बस यही सोच कर संजोना चाहती हूं अपने भविष्य के लिए, अपना "कुछ लिखा सा...."