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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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कसम

कसम

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अब तो कसम भी 

औपचारिक हो गये हैं,

अपनी जरूरतों के हिसाब से

कसम भी ढल रहे हैं।

लोगों का क्या


लोग तो सौ सौ कसमें खा रहे हैं,

जो कसमों का मान नहीं रख सकते

वे आगे बढ़कर मात्र औपचारिकता में

कसमों की भी कसम खा रहे हैं।

कसमों का महत्व भी


अब मिट रहा है,

गिरगिट से भी तेज

कसम का रंग बदल रहा है।

किसी की कसम पर भरोसा 

रहा नहीं अब तो,


कसम की देखिये आप भी जरा

आदमी उसे भी 

अपने साँचे में ढाले दे रहा है।


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