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Namrata Srivastava

Abstract

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Namrata Srivastava

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कश्तियाँ जलने की

कश्तियाँ जलने की

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कश्तियाँ जलने की खबर आ गई

ज़िल्द चेहरों पर थी नज़र आ गई


जिनसे कानों में शीशे हैं पिघले हुए

यह किस मौसिकी की बहर आ गई


फसलें गुल को बेरंग कर दिया

पत्तियाँ जाने कैसी नज़र आ गईं


मन्नतों ने ये क्या रुख कर लिया

बिजलियाँ खुद चलकर घर आ गईं


था जिनका फ़लक मोतियों से भरा

उनके पनहे में कैसे क़हर आ गई


हादसों पर कोई शोर होता नहीं

बस्ती में अहमकाना सहर आ गई


उनके हर राज़ से वाकिफ हैं हम

हमराज़ बनी वक्त की लहर आ गई।


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