कश्ती और पतवार
कश्ती और पतवार
देखा था एक नजारा,
जो आता है याद मुझे आज सारा।
दुनिया की भीड़ में,घूम रहे थे हम कहीं,
फस गए सिग्नल में आकर यही।
बांट रही थी भली
मिठाई के डिब्बे जरूरतमंदों को वही।
पर रह गई एक बुढ़िया वहीं खड़ी की खड़ी
ना हाथ में आया डिब्बा,
पर आंखें भर गई आंखों से वही।
मैं चुपचाप देख रही थी यह सब सिग्नल पर खड़ी,
आंखें मेरी भी थी आंसुओं से भरी
कि क्यों ना मैं उसको खिला दूं,
वहां सिग्नल पर खड़ी।
पर उस वक्त आया एक चौकीदार वही
उसने उस बुढ़िया को बिठाया
और अपने डिब्बे से एक निवाला उसे खिलाया।
ऐसे आधा-आधा डिब्बा दोनों ने खाया
एक बन गया मांझी, एक बन गया पतवार।
यह कहानी सच है मेरे यार
खड़ी थी मैं सिग्नल पे खड़ी
एक आदमी का एक दूसरे के प्रति प्यार।