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भाऊराव महंत

Abstract

5.0  

भाऊराव महंत

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कर सकता नहीं

कर सकता नहीं

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अपने ही हक पर जो कभी अधिकार कर सकता नहीं, 

वो स्वप्न अपने सच कहूँ साकार कर सकता नहीं। 


डरपोक या कायर कहूँ या दूँ अलग उपमान कुछ, 

कमजोर है वो आदमी जो वार कर सकता नहीं। 


पतवार जिसके हाथ हो पर हौसला किंचित न हो, 

खुद नाव चढ़कर समंदर पार कर सकता नहीं। 


पाषाण-सा उत्तर नहीं जो दे सका हो ईंट का, 

संग्राम में लड़कर कभी संहार कर सकता नहीं। 


जो खेल जाते हैं वतन की आन के खातिर यहाँ, 

वो वीर होते हैं, को'ई मक्कार कर सकता नहीं। 


वो जिंदगी जीता हमेशा और के बल पर यहाँ, 

जो स्वयं को ही स्वयं तैयार कर सकता नहीं। 


बेकार है वो आदमी, बेकार उसकी जिंदगी, 

जीवन समर में खुद को ही औजार कर सकता नहीं। 


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