कितना मुश्किल है
कितना मुश्किल है
कितना मुश्किल है खुद को बदल पाना,
तोड़कर अपना झूठा क्रोध, मोह और अहंकार
विनिर्माता से खुद की कमियों को स्वीकार कर जाना।
अक्सर भूल जाते हैं लोग खुद की ही पहचान को,
लीन होकर लत में मिटा देते हैं खुद की ही शान को।
चंचल मन को समझ उसे दृढ़ बनाना,
छल की इस खाई में सही-गलत का भेद कर जाना
कितना मुश्किल है खुद को बदल पाना।
परन्तु सत्य तो यह भी है आत्मा का
परमात्मा से गहरा नाता है,
जो चले उसकी राहों पर भला
उसे कौन भ्रमित कर पाता है।
मैंने देखा है गिरते हुए को
उस ईश्वर की गोद में जाते,
भूल के अपने दोषों को प्रेम के
बंधन में खुद को सुरक्षित पाते।
शक्ति अपार है उनकी और
आसान है उनकी शरण में जाना,
बाकी सब वो संभालेंगे हमें तो
बस यही विश्वास है जगाना।
भला फिर कैसी कशमकश की
रस्सी में खुद को जकड़ते हो,
जितना प्रेम करते हैं ईश्वर तुमसे
उतना ही तुम भी तो करते हो।
इस राह पर चलने वाला जान गया कि
ये तो है मन का एक बहाना,
जो कहता है कितना मुश्किल है
खुद को बदल पाना
कितना मुश्किल है खुद को बदल पान।