बेटियाँ
बेटियाँ
ये लोग, मेरे कदमों को रोकने की बात करते हैं,
बेटी हूं ना ! इसलिए, हर मेरे फैसले पर सवाल करते हैं।
खुद का कुछ कहने का अधिकार, तो उसी दिन छिन गया था,
जब माँ ने कहा था- बेटी! तू मेरे घर अमानत पराई है,
जिस घर बैठ चली डोली में, उनसे सुना ये दूसरे घर से आई है।
बहू, पत्नी, माँ , बेटी सबका किरदार खूब निभाया,
पर, जब चाही खुद की पहचान तो, अपने आपको तन्हा ही पाया।
संभल-संभल कर हर एक कदम चली, कि कोई उंगली न उठाए,
बेटी हूँ, घर की इज़्ज़त हूँ, मेरे कारण बापू का सर न झुक जाए।<
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जिंदगी भर अपने सपनों को मारकर, रिश्तों के मोती संजोए हैं,
बेटियों ने तो, बेटों से ज्यादा संघर्ष के बोझ धोए हैं।
फिर भी न जाने क्यों, समाज इस बात से इंकार करता है,
रखता है बेटियों को चार दीवारी में, और अपने नाकाम
बेटों पर भी नाज़ करता है।
अजीब है ये रीत, जहाँ कदम-कदम पर बेटियाँ ही झुकती है,
खुद की ख़ुशियों को भुलाकर, परिवार की खुशी के लिए रुकती है।
फिर भी ये लोग, उसके कदमों को रोकने की बात करते हैं,
बेटियाँ हैं ना ! इसलिए, उनके हर फ़ैसलों पर सवाल करते हैं।