किसी रोज....
किसी रोज....
किसी रोज गर नींद आएगी हमकों तो देखेंगे हम भी वो रंगीन सपनें,
वो सपने के जिनमें खिज़ा के अलावा बहारों के मौसम का भी ज़िक्र होगा,
वो सपने के जिनमें मैं कलियों के खिलने की बातें करूँगा,
वो सपने के जिनमें सवारूँगा मैं तेरे बालों को दूँगा मैं माथे पे बोसा तुम्हारे,
मगर जब भी जागेंगे हम नींद से तो ये पाएंगे सारे के सारे ही सपनें वो टूटे हुए हैं,
किसी रोज़ अपने बदन को समेटूँगा ये सोच कर जो मिलोगे तो तुमको तुम्हारी अमानत ये मैं सौंप दूँगा,
वो क्या है मेरी रूह तुमको ख़ुदा मान कर के तुम्हें ढूँढने को जो निकली तो अब तक वो लौटी नहीं है,
किसी रोज तुमको पुकारेंगे ये सोचकर हमनें आवाज़ अपनी बचा कर रखी है,
किसी रोज़ टूटेगा ख़ामोशियों का ये बन्धन तो उस दिन हम अपनी कहानी सुनाएंगे तुमको,
बतायेंगे ये भी के क्यूँ बोलते बोलते चुप सा हो जाता हूँ मैं,
ये वो ही कहानी है के जिसको सुन कर इन अब्रों की आँखों में पानी भरे हैं,
किसी रोज सागर की तट पर खड़े होकर देखूँगा मैं भी के सागर के लहरों में कितना असर है,
वो लहरें मेरे जिस्म को अपनी आग़ोश में लेके कब तक मचलती रहेंगी,
किसी रोज पंखे से लटके मिलेंगे तो पाओगे तुम मेरी गर्दन की हड्डी भी टूटी हुई है,
निशाँ होंगे रस्सी के मेरे गले पे जो उन मन्नतों के ही धागों में उलझे रहेंगे जो बाँधे थे तुमनें,
किसी रोज मैं जो ख़यालों की दुनिया से निकलूंगा तो मैं ये पाउँगा मुझको ख़यालों के दीमक ने चट कर लिया है,
जो तन्हाईयों में उदासी ने दीपक जलाएं तो ऐसे जलाये के खुशियों के सूरज भी फीके हुए हैं.

