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किंकर्तव्यविमूढ़

किंकर्तव्यविमूढ़

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वो थकान बुन रहा है,

जैसे नींद आ जाए रात को,

कैसे बयान करु कहावत,

जिन्दगी की मुलाकात को।


मरहम-सी कोशिश है,

ऐसे राहत भा जाए आघात को,

वातानुकूलिन मकान ढूँढ रहा है,

जैसे सुकून आ जाए बात को।


घर से दूर ब्रेड तोड़ रहा हैं,

कैसे मरोड़ दिया है आंत को,

खाकर भी भुखा रह गया है,

जैसे सवाल पूछ लिया है तात को।


हँसना बंद है इस डर से,

ऐसे हुनर ना आ जाए दाँत को,

कलम मिल जाए ज्ञान प्रवाह में तो,

जैसे मजा आ जाए आप को।


झपकती ही नहीं पलकें,

सपने मिटा दे क्या ?

वैसे शायद सुकून आ जाए आँख को,

चुल्हा ठंडा है पराए गाँव में,

कैसे ढूँढे जलती राख को।


दरख़्त देख रखा है किन्तु,

जैसे मसला है झुलती शाख को,

जुबान पर ताला जड़ भी दे तो,

वैसे दिक्कत है नाक को।


मैं नहीं ये तो वो लोग हैं,

बस ऐसे उलझन है आप को,

लाठी भी टूटी आज दोस्त जाने,

कैसे जिन्दा छोड़ गई साँप को।


कैसे बयान करु कहावत,

जिन्दगी की मुलाकात को,

वो थकान बुन रहा है,

जैसे नींद आ जाए रात को।


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